Menu
blogid : 5134 postid : 10

वो खुद ही खुद संभलने चला था

कविता-एक कोशिश
कविता-एक कोशिश
  • 3 Posts
  • 6 Comments

चरागें मयस्सर करने चला था
कोई ज़ख्म गहरा भरने चला था

वो खुद ही खुद संभलने चला था
सूरज सा वो भी जलने चला था

कुछ यादों की इक राह पर
वो दूर तक टहलने चला था

काग़ज़ पर लिख के कोई ग़ज़ल
वो ज़िन्दगी को पढने चला था

आदत थी कुछ कुछ मेरी तरह
वो मुझको बदलने चला था

खुली आँख से देखा था ख्वाब
और एक हकीकत गढ़ने चला था

कुछ शायराना माहौल था
वो राज़-ए-दिल कहने चला था

थामे कलम की रौशनी
वो वादियों में बिखरने चला था

जो हो जुदा ,सबसे अलग
कुछ ऐसा अब करने चला था

आँखों में था जलता मशाल
और तीरगी से लड़ने चला था

जाने थी कैसी दीवानगी
फिर से मुहब्बत करने चला था

लिख कर नील स्याही से नज़्म
पढ़ कर उन्हें हि ,बहलने चला था

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh